अजब का आदमी साहब मेरे हिन्दोस्तां का है...

कई दिनों बाद कल रात कुछ लिखने की इच्छा हुई....पर बमुश्किल ये 6 शे'र कह पाया. किसी बात का बड़ा अफ़सोस हो रहा था..आप गज़ल पढेंगे तो पता चल जायेगा-

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किसी की आँख के पानी को मैं सच्चा समझता था,
बड़ा नादान था मैं भी न जाने क्या समझता था,

अजब का आदमी साहब मेरे हिन्दोस्तां का है,
उन्हीं को मुल्क़ सौंपा है जिन्हें झूठा समझता था,

सुना है अब वहाँ ऊँचों की भारी भीड़ होती है,
जहाँ जाना मैं इज़्ज़त को बड़ा ख़तरा समझता था,

बहुत मजबूरियाँ होंगी कि कोई बिक गया होगा,
मैं अबतक रूह के सौदों को इक धंधा समझता था,

ये अच्छा है मसीहा ने गलतफ़हमी मिटा दी है,
मैं अपने मर्ज़ को अबतक बहुत छोटा समझता था,

मेरे हिस्से की खुशियों को उसी ने रोज़ है लूटा,
जिसे आलम का मैं सबसे बड़ा दाता समझता था...

-ऋतेश त्रिपाठी
17/05/09 

सेल्स की नौकरी...

स्वाभिमान की बत्ती बना कर,
पैंट की जेब में रक्खी है,
मर्दानगी को बचाये रखने का ये नुस्खा,
एक सेल्स वाले ने ही बताया था.
अचूक निकला.
हफ़्ते में एकाध बार,
(जरूरत होने पर) डाल भी लेता हूँ,
कहाँ??
क्यूँ परेशान करते हो?
तुमको मालूम नहीं क्या?
यार! तुमने कुछ न बेचा हो,
मुमकिन तो नहीं लगता.

आत्मसम्मान ने कुछ दिन ड्राइवर की नौकरी की
फिर खलासी हुआ
आजकल बेरोज़गार है.

दिन भर झोला लटकाए,
मोटरसाइकिल पर सौ-सवा सौ किलोमीटर के सफ़र के बाद,
रीढ और कमर के अस्तित्व को नकारते हुए,
असफ़ल होना,
बच्चों का रोना,
बीवी का सोना,
कुछ नहीं खलता.

ख़ैर,
सब पेशे की मजबूरी है,
बद्तमीज़ को आप कहना
और सूखी हड्डी को चाप् कहना,
दर-असल,
ज़िंदा रहने के लिये ज़रूरी है.

-ऋतेश 
06.05.09