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किसी की आँख के पानी को मैं सच्चा समझता था,
बड़ा नादान था मैं भी न जाने क्या समझता था,
अजब का आदमी साहब मेरे हिन्दोस्तां का है,
उन्हीं को मुल्क़ सौंपा है जिन्हें झूठा समझता था,
सुना है अब वहाँ ऊँचों की भारी भीड़ होती है,
जहाँ जाना मैं इज़्ज़त को बड़ा ख़तरा समझता था,
बहुत मजबूरियाँ होंगी कि कोई बिक गया होगा,
मैं अबतक रूह के सौदों को इक धंधा समझता था,
ये अच्छा है मसीहा ने गलतफ़हमी मिटा दी है,
मैं अपने मर्ज़ को अबतक बहुत छोटा समझता था,
मेरे हिस्से की खुशियों को उसी ने रोज़ है लूटा,
जिसे आलम का मैं सबसे बड़ा दाता समझता था...
-ऋतेश त्रिपाठी
17/05/09