कार्ल मार्क्स का घोड़ा :

ये रचना उदयपुर की एक औरत को समर्पित, जो हिन्दी कविता को कुछ लफ़्फाजों की शोशेबाज़ी से ही जानती है-

कार्ल मार्क्स का घोड़ा :

पूँजीवाद के कोठे की वेश्या ने
जो साड़ी उतारकर फेंकी थी
विकासशील देश उससे शेरवानी बनवा रहे हैं
वेश्या बूढ़ी होने के बावजूद
अब भी जब ज़रा सा पेटीकोट उठाती है
हर तरफ़ से-
और और की आवाज आती है।

गदहों का व्यापार करने वालों ने
अस्तबल खोल लिये हैं
जहाँ कार्ल मार्क्स का घोड़ा
अपने पुन्सत्व को धिक्कारता बँधा है
सभी मज़दूर अब साईस हैं।

अफ़्रीका के जंगलों में
हव्वा के निकटतम पर्याय से
अमानवीय बलात्कार से उपजी संतान
अपनी माँ को गरियाती है
बाप की संवेदना के गीत गाती है
वर्णसंकर हो चुके जनतंत्र में
आजकल ये अवस्था
कविता कहाती है।

-ऋतेश त्रिपाठी
२४.०७.२००८

2 comments:

  Anonymous

July 25, 2008 at 6:25 PM

true marxism is utopia, i agree with marx but not with so called marxists. anyway, excellent poem.

  सुधांशु

September 11, 2008 at 2:05 PM

mujhe afsos hai apne aap se ki mai aapko itni der bad kyun padha ,,,,bahut aag hai aapke lekhan me.....lekin dhumil se aage nikalne ki jarurat hai.....bahut sambhavnayen hai bhaiya apni styl or diction develop kijiye...behtar rachnatmak bhavishya ke liye shubh kamnayen