अब किवाड़ों पर पड़ी साँकल की चर्चा क्या करें?
एक - दो लहरें उठीं हैं,हलचल की चर्चा क्या करें?
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Tuesday, October 21, 2008 at 1:59 PM
हाट में सदियाँ बिकी हैं,पल की चर्चा क्या करें?
आज ये हालात हैं तो ,कल की चर्चा क्या करें?
अब टाट के पर्दे हमें तो कुछ ज़रा जमते नहीं,
पर तुम्हें मंज़ूर हैं,मखमल की चर्चा क्या करें?
जब किवाड़ें बंद थीं तब खिड़कियाँ खुलने लगीं,
अब किवाड़ों पर पड़ी साँकल की चर्चा क्या करें?
अब किवाड़ों पर पड़ी साँकल की चर्चा क्या करें?
सो रहा था एक अरसे से समंदर अब तलक,
एक - दो लहरें उठीं, हलचल की चर्चा क्या करें?
आसमां से हो गयी नफ़रत जला है यूँ चमन,
है नमी से दूर उस बादल की चर्चा क्या करें?
- ऋतेश त्रिपाठी
20.10.08
वसीयत का सदका उतारा गया है !
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Monday, October 13, 2008 at 1:36 PM
ज़हर दे वालिद को मारा गया है,
वसीयत का सदका उतारा गया है!
अमीरे-शहर से कोई सच न पूछे,
मेरी मौत से ये इशारा गया है,
जो आए अदालत में देने गवाही,
हमें मुजरिमों में पुकारा गया है,
कहीं आईनों पे कालिख लगा दी,
कहीं उनका पानी उतारा गया है,
मेरे मुल्क की बदनसीबी न पूछो,
गलत हाथ में ये बिचारा गया है,
बुनियाद देखें ये फ़ुरसत किसे है,
सो दीवारो-दर को सँवारा गया है,
बसकी नहीं सबकी आतिश-बयानी,
गिनलो कि क्या-क्या हमारा गया है
चलें उस अदालत को,पेशी है यारों,
हम भी हैं मुजरिम,पुकारा गया है...
- ऋतेश त्रिपाठी
१२.१०.०८
जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Monday, October 6, 2008 at 11:04 AM
हम पुरखों की गुलामी की विरासत ओढ़ लेते हैं,
जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं,
कहाँ तो ये शिकायत बंदिशों में दम निकलता है,
कहाँ हर रोज़ हम वो ही रवायत ओढ़ लेते हैं,
अमूमन तल्ख हों लहजे सभी बेबाक हों लेकिन,
सभी मतलब के मारे हैं सियासत ओढ़ लेते हैं,
कभी ये गौर फ़रमाएँ कि वो सब कितने ज़रूरी हैं,
जिन्हें हम देख कर अक्सर हिकारत ओढ़ लेते हैं,
कुछेक दुश्मन पुराने भी उन यारों से बेहतर हैं,
ज़रा सी बात पर जो यार रकाबत ओढ़ लेते हैं...
बहुत मुमकिन ख़ुदा अपना हमें पहचान ना पाए,
हम उससे मिलना चाहें तो इबादत ओढ़ लेते हैं,
कहाँ इन्कार हमको हैसियत से खार हैं लेकिन,
जहाँ पर फूल हों दरकार नफ़ासत ओढ़ लेते हैं...
जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं,
कहाँ तो ये शिकायत बंदिशों में दम निकलता है,
कहाँ हर रोज़ हम वो ही रवायत ओढ़ लेते हैं,
अमूमन तल्ख हों लहजे सभी बेबाक हों लेकिन,
सभी मतलब के मारे हैं सियासत ओढ़ लेते हैं,
कभी ये गौर फ़रमाएँ कि वो सब कितने ज़रूरी हैं,
जिन्हें हम देख कर अक्सर हिकारत ओढ़ लेते हैं,
कुछेक दुश्मन पुराने भी उन यारों से बेहतर हैं,
ज़रा सी बात पर जो यार रकाबत ओढ़ लेते हैं...
बहुत मुमकिन ख़ुदा अपना हमें पहचान ना पाए,
हम उससे मिलना चाहें तो इबादत ओढ़ लेते हैं,
कहाँ इन्कार हमको हैसियत से खार हैं लेकिन,
जहाँ पर फूल हों दरकार नफ़ासत ओढ़ लेते हैं...
- ऋतेश त्रिपाठी
05.10.08
बुलबुल के बच्चे पर चालाक निकले...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Wednesday, October 1, 2008 at 10:54 AM
सय्यादों के इरादे थे, नापाक निकले,
बुलबुल के बच्चे पर चालाक निकले,
अब ज़रा देखिये कश्ती वालों की हालत,
जिन्हें साहिल पे छोड़ा वो तैराक निकले,
फूलों का बदला या काँटों की रंजिश?
तितली ने पूछा जो पर चाक निकले,
मंदिर ये मस्जिद ये गिरजे सभी तो,
बढ़ कर के हद से ख़तरनाक निकले,
जो रोटी को पूछा तो बंजर दिखाए,
यूँ गज़ब के मेरे शाह बेबाक निकले,
खूँ दामन पे उनके भी होगा ऐ "मंथन",
मगर जब भी देखा वो शफ़्फ़ाक निकले,
सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,
हुआ सब से ज़्यादा हमीं को अचंभा,
गुनाहों की बस्ती से हम पाक़ निकले!
यूँ गज़ब के मेरे शाह बेबाक निकले,
खूँ दामन पे उनके भी होगा ऐ "मंथन",
मगर जब भी देखा वो शफ़्फ़ाक निकले,
सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,
हुआ सब से ज़्यादा हमीं को अचंभा,
गुनाहों की बस्ती से हम पाक़ निकले!
-ऋतेश त्रिपाठी
30.09.08
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