सय्यादों के इरादे थे, नापाक निकले,
बुलबुल के बच्चे पर चालाक निकले,
अब ज़रा देखिये कश्ती वालों की हालत,
जिन्हें साहिल पे छोड़ा वो तैराक निकले,
फूलों का बदला या काँटों की रंजिश?
तितली ने पूछा जो पर चाक निकले,
मंदिर ये मस्जिद ये गिरजे सभी तो,
बढ़ कर के हद से ख़तरनाक निकले,
जो रोटी को पूछा तो बंजर दिखाए,
यूँ गज़ब के मेरे शाह बेबाक निकले,
खूँ दामन पे उनके भी होगा ऐ "मंथन",
मगर जब भी देखा वो शफ़्फ़ाक निकले,
सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,
हुआ सब से ज़्यादा हमीं को अचंभा,
गुनाहों की बस्ती से हम पाक़ निकले!
यूँ गज़ब के मेरे शाह बेबाक निकले,
खूँ दामन पे उनके भी होगा ऐ "मंथन",
मगर जब भी देखा वो शफ़्फ़ाक निकले,
सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,
हुआ सब से ज़्यादा हमीं को अचंभा,
गुनाहों की बस्ती से हम पाक़ निकले!
-ऋतेश त्रिपाठी
30.09.08
5 comments:
October 1, 2008 at 4:01 PM
सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,
हुआ सब से ज़्यादा हमीं को अचंभा,
गुनाहों की बस्ती से हम पाक़ निकले!
dil ko cho rahi hai ye bhaawnayen
October 1, 2008 at 8:23 PM
bahot sundar ritesh bhai wah kya bat likhi hai umda...... upar se ye sher.
सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,
.....bas bat ye hai ke ye aag ka dariya hai aur dub ke jana hai...
regards
October 4, 2008 at 9:20 PM
apne bloge me nai ghazal pe aapke tippni ka wait kar raha hun....
October 5, 2008 at 9:36 PM
ha ha ha mere blog me aapke liye shabdon ka pura khayal rakha jayega... bas aapki mauzudagi jaruri hai....
regards
October 5, 2008 at 10:46 PM
Badhai Mitrawar
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