ज़हर दे वालिद को मारा गया है,
वसीयत का सदका उतारा गया है!
अमीरे-शहर से कोई सच न पूछे,
मेरी मौत से ये इशारा गया है,
जो आए अदालत में देने गवाही,
हमें मुजरिमों में पुकारा गया है,
कहीं आईनों पे कालिख लगा दी,
कहीं उनका पानी उतारा गया है,
मेरे मुल्क की बदनसीबी न पूछो,
गलत हाथ में ये बिचारा गया है,
बुनियाद देखें ये फ़ुरसत किसे है,
सो दीवारो-दर को सँवारा गया है,
बसकी नहीं सबकी आतिश-बयानी,
गिनलो कि क्या-क्या हमारा गया है
चलें उस अदालत को,पेशी है यारों,
हम भी हैं मुजरिम,पुकारा गया है...
- ऋतेश त्रिपाठी
१२.१०.०८
7 comments:
October 13, 2008 at 3:36 PM
'बुनियाद देखें……'
बहुत ख़ूब! दुष्यंत की याद आ गई।
"अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार।"
बधाई।
October 13, 2008 at 3:42 PM
@ Dr. Amar
वसीम बरेलवी साहब का शे'र है-
"जनाबे-मीर की खुदगर्ज़ियों के सदके में,
मियाँ वसीम के कहने को क्या बचा यारों"
इसको ज़रा सा बदल दें तो-
जनाब-दुष्यन्त की खुदगर्ज़ियों के सदके में,
मियाँ रितेश के कहने को क्या बचा यारों"
दुष्यन्त लाजवाब हैं.
October 13, 2008 at 5:04 PM
ज़हर दे वालिद को मारा गया है,
वसीयत का सदका उतारा गया है!
अमीरे-शहर से कोई सच न पूछे,
मेरी मौत से ये इशारा गया है,
bahut hi khoobasoorat rachana . rachanakaar ko salaam karta hun.
October 13, 2008 at 7:30 PM
मेरे मुल्क की बदनसीबी न पूछो,
गलत हाथ में ये बिचारा गया है,
bahot sundar guru ......
regards
October 19, 2008 at 3:20 PM
कहीं आईनों पे कालिख लगा दी,
कहीं उनका पानी उतारा गया है,
wah..wah
खूब कहते हैं आप.
योंही जमाये रखिये..
ब्लाग जगत को अच्छे रचनाकारों की बहुत जरूरत है.
बधाई........
October 19, 2008 at 3:36 PM
बहुत दिनों के बाद कोई ऐसा ब्लाग मिला जिसे मैं पढ़ती चला गया
औसत से कम भरा पेट गजब की व्यंग्य रचना है
मैं नहीं जानता कि मंचो के बारे में आपके क्या विचार किंतु मैं जब कोई आयोजन करता हूं तो
मेरी कोशिश रहती है कि कुछ अच्छे रचनाकार भी शामिल रहें आपकी रुचि हो तो अपना पता व मोबाइल नं जरूर इमेल करियेगा
yogindermoudgil.blogspot.com
ymoudgil@gmail.com
October 19, 2008 at 3:37 PM
ऊपर के संदेश में पढ़ती को पढ़ता पढ़ें
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