हम पुरखों की गुलामी की विरासत ओढ़ लेते हैं,
जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं,
कहाँ तो ये शिकायत बंदिशों में दम निकलता है,
कहाँ हर रोज़ हम वो ही रवायत ओढ़ लेते हैं,
अमूमन तल्ख हों लहजे सभी बेबाक हों लेकिन,
सभी मतलब के मारे हैं सियासत ओढ़ लेते हैं,
कभी ये गौर फ़रमाएँ कि वो सब कितने ज़रूरी हैं,
जिन्हें हम देख कर अक्सर हिकारत ओढ़ लेते हैं,
कुछेक दुश्मन पुराने भी उन यारों से बेहतर हैं,
ज़रा सी बात पर जो यार रकाबत ओढ़ लेते हैं...
बहुत मुमकिन ख़ुदा अपना हमें पहचान ना पाए,
हम उससे मिलना चाहें तो इबादत ओढ़ लेते हैं,
कहाँ इन्कार हमको हैसियत से खार हैं लेकिन,
जहाँ पर फूल हों दरकार नफ़ासत ओढ़ लेते हैं...
जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं,
कहाँ तो ये शिकायत बंदिशों में दम निकलता है,
कहाँ हर रोज़ हम वो ही रवायत ओढ़ लेते हैं,
अमूमन तल्ख हों लहजे सभी बेबाक हों लेकिन,
सभी मतलब के मारे हैं सियासत ओढ़ लेते हैं,
कभी ये गौर फ़रमाएँ कि वो सब कितने ज़रूरी हैं,
जिन्हें हम देख कर अक्सर हिकारत ओढ़ लेते हैं,
कुछेक दुश्मन पुराने भी उन यारों से बेहतर हैं,
ज़रा सी बात पर जो यार रकाबत ओढ़ लेते हैं...
बहुत मुमकिन ख़ुदा अपना हमें पहचान ना पाए,
हम उससे मिलना चाहें तो इबादत ओढ़ लेते हैं,
कहाँ इन्कार हमको हैसियत से खार हैं लेकिन,
जहाँ पर फूल हों दरकार नफ़ासत ओढ़ लेते हैं...
- ऋतेश त्रिपाठी
05.10.08
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