देश में हो रहे बम धमाकों पर हमारे पूँजीवादी दिमाग में उठने वाली क्षणिक उत्तेजना और लगभग नपुंसकता की हद पर पहुँच चुकी हमारी हूक़ूमत के नाम-
मंज़िल पे पहुँचने की है आरज़ू उन्हें,
दो क़दम पे जो हौंसले निढाल होते हैं,
गज़ब है गुत्थी कि सुलझती ही नहीं,
इक जवाब आए तो सौ सवाल होते हैं,
बेज़ुबाँ सदियाँ जेहन से उतर जाती हैं,
पलट के बोलें वो लम्हे मिसाल होते हैं,
कौन से जंगल में महफ़ूज़ हैं गज़ाले,
हर जंगल में शिकारी के जाल होते हैं...
-ऋतेश त्रिपाठी
27.09.08