हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में...

ज़मीर कहता है गुरबों के तरफ़दार बनो,
तजुर्बा कहता है छोड़ो भी समझदार बनो,

चलो ये माना कि धरती यहाँ की बंजर है,
तुम्हें ये किसने कहा था कि जमींदार बनो,

हरेक घर की दीवारें यहाँ पे सेंध लगीं,
ज़रा सा सोच-समझ लो तो पहरेदार बनो,

हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में,
हवा की बात करो और गुनहगार बनो,

किसीको ये भी पता है कि मुल्क गिरवी है,
उन्होंने सबसे कहा है कि शहरयार बनो,

हरेक रिश्ता यहाँ ख़ून-ए-जिगर माँगे है,
अगर ये रिश्ते निभाने हैं अदाकार बनो,

वो नासमझ है अभी उसका दिल भी टूटेगा,
यही मुफ़ीद है तुम उसके गमगुसार बनो...

-ऋतेश त्रिपाठी
24.12.2008 

हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है...

हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है,
ये जो रक़ीब है हर बार बच निकलता है,

मैं उस के हाथ का मारा हुआ सवेरा हूँ,
कि जिसकी ओट से सूरज यहाँ निकलता है,

किसीको शक़ न हुआ बागबाँ की नीयत पर,
गुलों की आड़ में पेड़ों का जिस्म नुचता है,

हज़ार बार कहा रेत के ये घर न बना,
अभी जो देखे हैं बादल क्यूँ हाथ मलता है?

मेरे रक़ीब तेरा इक फ़रेब क्या मैं गिनूँ,
मेरा हबीब है जो मुझको रोज़ छलता है,

तुम्हारे तौर तरीकों से कुछ गिला ना मुझे,
तुम्हारी बात का लहजा ज़रूर खलता है...

-ऋतेश त्रिपाठी
२१.१२.२००८

पाँच बरस का गर्भ गिराकर...

कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. लोक सभा चुनाव भी निकट भविष्य में संभावित हैं. इसी जमीन पर पेश हैं चार शे'र-


पाँच बरस का गर्भ गिराकर मेले की तैयारी है,
हमको भी सदमे सहने की,लुटने की बीमारी है,

शाहों का दरियादिल होना,नई तो कोई बात नहीं,
दमड़ी देकर चमड़ी लेना, शाहों की गमख्वारी है,

जिन पेड़ों के कोने-कोने,जड़तक दीमक फैली हो,
उन पेड़ों पर कोंपल आना,गुलचीं की अय्यारी है,

पंख के नीचे घाव हैं कितने,जाके उससे पूछ ज़रा,
कैद में रहकर गाते रहना, बुलबुल की लाचारी है...

-ऋतेश त्रिपाठी
23.11.2008 


एक - दो लहरें उठीं हैं,हलचल की चर्चा क्या करें?




















हाट में सदियाँ बिकी हैं,पल की चर्चा क्या करें?
आज ये हालात हैं तो ,कल की चर्चा क्या करें?
 
अब टाट के पर्दे हमें तो कुछ ज़रा जमते नहीं,
पर तुम्हें  मंज़ूर हैं,मखमल की चर्चा क्या करें?
 
जब किवाड़ें बंद थीं तब खिड़कियाँ खुलने लगीं,
अब किवाड़ों पर पड़ी साँकल की चर्चा क्या करें?
 
सो रहा था एक अरसे से समंदर अब तलक,
एक - दो लहरें उठीं, हलचल की चर्चा क्या करें?

आसमां से हो गयी नफ़रत जला है यूँ चमन,
है नमी से दूर उस बादल की चर्चा क्या करें?

- ऋतेश त्रिपाठी
20.10.08

वसीयत का सदका उतारा गया है !

ज़हर दे वालिद को मारा गया है,
वसीयत का सदका उतारा गया है!

अमीरे-शहर से कोई सच न पूछे,
मेरी मौत से ये इशारा गया है,

जो आए अदालत में देने गवाही,
हमें मुजरिमों में पुकारा गया है,

कहीं आईनों पे कालिख लगा दी,
कहीं उनका पानी उतारा गया है,

मेरे मुल्क की बदनसीबी न पूछो,
गलत हाथ में ये बिचारा गया है,

बुनियाद देखें ये फ़ुरसत किसे है,
सो दीवारो-दर को सँवारा गया है,

बसकी नहीं सबकी आतिश-बयानी,
गिनलो कि क्या-क्या हमारा गया है

चलें उस अदालत को,पेशी है यारों,
हम भी हैं मुजरिम,पुकारा गया है...

- ऋतेश त्रिपाठी
१२.१०.०८

जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं...

हम पुरखों की गुलामी की विरासत ओढ़ लेते हैं,
जहाँ कुछ कर नहीं सकते शराफ़त ओढ़ लेते हैं,

कहाँ तो ये शिकायत बंदिशों में दम निकलता है,
कहाँ हर रोज़ हम वो ही रवायत ओढ़ लेते हैं,

अमूमन तल्ख हों लहजे सभी बेबाक हों लेकिन,
सभी मतलब के मारे हैं सियासत ओढ़ लेते हैं,

कभी ये गौर फ़रमाएँ कि वो सब कितने ज़रूरी हैं,
जिन्हें हम देख कर अक्सर हिकारत ओढ़ लेते हैं,

कुछेक दुश्मन पुराने भी उन यारों से बेहतर हैं,
ज़रा सी बात पर जो यार रकाबत ओढ़ लेते हैं...

बहुत मुमकिन ख़ुदा अपना हमें पहचान ना पाए,
हम उससे मिलना चाहें तो इबादत ओढ़ लेते हैं,

कहाँ इन्कार हमको हैसियत से खार हैं लेकिन,
जहाँ पर फूल हों दरकार नफ़ासत ओढ़ लेते हैं...

- ऋतेश त्रिपाठी 
05.10.08

बुलबुल के बच्चे पर चालाक निकले...

सय्यादों के इरादे थे, नापाक निकले,
बुलबुल के बच्चे पर चालाक निकले,

अब ज़रा देखिये कश्ती वालों की हालत, 
जिन्हें साहिल पे छोड़ा वो तैराक निकले,

फूलों का बदला या काँटों की रंजिश?
तितली ने पूछा जो पर चाक निकले,

मंदिर ये मस्जिद ये गिरजे सभी तो,
बढ़ कर के हद से ख़तरनाक निकले,

जो रोटी को पूछा तो बंजर दिखाए,
यूँ गज़ब के मेरे शाह बेबाक निकले,

खूँ दामन पे उनके भी होगा ऐ "मंथन",
मगर जब भी देखा वो शफ़्फ़ाक निकले,

सीधे-सादे से दिखते मुहब्बत के रस्ते,
जो आया तो बेहद ही पेचाक निकले,

हुआ सब से ज़्यादा हमीं को अचंभा,
गुनाहों की बस्ती से हम पाक़ निकले!

 
-ऋतेश त्रिपाठी
30.09.08

उनके सामने ही क़तरे हलाल होते हैं...


देश में हो रहे बम धमाकों पर हमारे पूँजीवादी दिमाग में उठने वाली क्षणिक उत्तेजना और लगभग नपुंसकता की हद पर पहुँच चुकी हमारी हूक़ूमत के नाम-


उनके सामने ही क़तरे हलाल होते हैं,
चुप रहते हैं समंदर , कमाल होते हैं,

मंज़िल पे पहुँचने की है आरज़ू उन्हें,
दो क़दम पे जो हौंसले निढाल होते हैं,

गज़ब है गुत्थी कि  सुलझती ही नहीं,
इक जवाब आए तो सौ सवाल होते हैं,

बेज़ुबाँ सदियाँ जेहन से उतर जाती हैं,
पलट के बोलें वो लम्हे मिसाल होते हैं,

कौन से जंगल में महफ़ूज़ हैं गज़ाले,
हर जंगल में शिकारी के जाल होते हैं...

-ऋतेश त्रिपाठी

27.09.08

बुरा वक़्त तुमने भी देखा है प्यारे...

बुरा वक़्त तुमने भी देखा है प्यारे,
सँभलो,सँभलने का मौका है प्यारे,

गरीबों के घर में दिये तेल के हैं,
यही रोशनी का छलावा है प्यारे,

जो मंज़िल समझ के सुस्ता रहे हो,
बड़े रहजनों का इलाक़ा है प्यारे,

सब तैयार फ़सलों में कीड़े लगे हैं,
हरियाली बस इक दिखावा है प्यारे,

हमारी ही चीज़ें हमीं तक न पहुँचें,
मेरे दौर का ये तकाज़ा है प्यारे,

तू ही नहीं इस मुहब्बत का मारा,
हमने भी सबकुछ गँवाया है प्यारे,

तुम्हें हो मुबारक़ तुम्हारी किताबें,
हमें ज़िन्दगी ने सिखाया है प्यारे...

-ऋतेश त्रिपाठी
10।09।2008

औसत सॆ कम भरा हुआ पॆट‌

अब
जब कि
नपुंसकता राष्ट्रीय बीमारी घोषित कि जा चुकी है
और हिजड़ों को आपका आँफ़िशियल प्रतिनिधि बना दिया गया है
आप स्तब्ध हैं।

आपको याद होगा
आप भी तो उस घोषणा समारोह में गये थे
और एक संदेह लेकर लौटे थे
वो एक टूटे हुए दिन की
थकी हुइ शाम थी
और उसके ठीक बाद
आप असफल होना शुरु हुए थे।

आप कहते हैं
आपने पाँच साल में
तीन बेटे और दो बेटियाँ पैदा कीं
तो क्या?
बच्चे नपुंसकता की जेल से छूटने के लिये
ज़मानती वारंट हैं?

आप दलील देते हैं
आपने कालेज के दिनों में
उस नीली आँखों वाली के लिये
कई लोगों से झगड़ा मोल लिया था
दो-तीन को चित भी किया था
तो क्या?
आपकी बाँहों की मछलियाँ
नामर्दगी के जाल से बच गईं?

आप फ़िर कहते हैं
आपने रोटी कमाई है
मुक़दमे लड़े हैं
अपनी परेशानियों से भिड़े हैं
और ये भी कि
औसत से कम भरे हुए पेट के बावज़ूद
आपकी जाँघों का पड़ोसी पुष्ट है
और आप अपनी उपलब्धियों सॆ
लगभग‌ सन्तुष्ट हैं
तो क्या?
ये उपलब्धियाँ आपकी कब्र के पत्थर पर खुदवा दूँ
और जब तक आप ज़िन्दा हैं
आपके दरवाज़े परनेम प्लेट के बगल में लगवा दूँ?
मंज़ूर है?
नहीं?
फ़िर?
आप चुप हैं
बहुत देर से
रहेंगे भी।

सुनिये,एक नुस्खा बताता हूँ
अब जब वो आपको अपने संघर्षों का हवाला दें
और ये बताएँ कि आपकी सुविधा के लिये
वो कितनी मर्दानगी के साथ लड़े
आप आकलन करें
कि उनके संघर्ष में कितनी सुविधा थी
और आपकी सुविधा में कितना संघर्ष था (है)
आप पाएँगे
तनाव आ रहा है
सारे जिस्म में
जबड़े इतना खिचेंगे
ज़बान सवाल करना सीखेगी
जवाब भी मिलेंगे
यही तनाव
उन जवाबों को खारिज करने की क्षमता भी देगा
और अगर इलाज़ कुछ दिन चल गया
तो आप पाएँगे
कि आप
घोषणा सुनने के लिये नहीं
घोषणा करने के लिये खड़े हैं।

-ऋतेश त्रिपाठी
२५.०७.२००८

कार्ल मार्क्स का घोड़ा :

ये रचना उदयपुर की एक औरत को समर्पित, जो हिन्दी कविता को कुछ लफ़्फाजों की शोशेबाज़ी से ही जानती है-

कार्ल मार्क्स का घोड़ा :

पूँजीवाद के कोठे की वेश्या ने
जो साड़ी उतारकर फेंकी थी
विकासशील देश उससे शेरवानी बनवा रहे हैं
वेश्या बूढ़ी होने के बावजूद
अब भी जब ज़रा सा पेटीकोट उठाती है
हर तरफ़ से-
और और की आवाज आती है।

गदहों का व्यापार करने वालों ने
अस्तबल खोल लिये हैं
जहाँ कार्ल मार्क्स का घोड़ा
अपने पुन्सत्व को धिक्कारता बँधा है
सभी मज़दूर अब साईस हैं।

अफ़्रीका के जंगलों में
हव्वा के निकटतम पर्याय से
अमानवीय बलात्कार से उपजी संतान
अपनी माँ को गरियाती है
बाप की संवेदना के गीत गाती है
वर्णसंकर हो चुके जनतंत्र में
आजकल ये अवस्था
कविता कहाती है।

-ऋतेश त्रिपाठी
२४.०७.२००८

तुझे गिला है कि दुआ में असर नहीं होता...

तुझे गिला है कि दुआ में असर नहीं होता,
मैं समझता हूँ कि ज़ुबाँ से सफ़र नहीं होता,

गरज़ बेखौफ़ थी कि गली बदनाम हो गई,
वर्ना सोच वही काम किसके घर नहीं होता,

नामर्द क़ौमों को हुकूमत से हो क्या हासिल,
नामर्द की बीवी को शौहर का डर नहीं होता,

हमारी गिड़गिड़ाने की बीमारी इतनी पुरानी है,
किसी हक़ीम का नुस्खा कारगर नहीं होता,

आदमी बेबाक हो तो मुसलसल चोट खाता है,
जिसे गर्दन नहीं होती उसे कोई डर नहीं होता,

बेहतर हो किसी साकी से मरासिम बढ़ाइए,
फ़क़्त मैख़ाना जाने से दामन तर नहीं होता...

ऋतेश त्रिपाठी
२३. ०७.२००८

क़तरा अगर समंदर को शर्मसार करे....

क़तरा अगर समंदर को शर्मसार करे,
समंदर कौन सा रुख अख्तियार करे?

जब समंदर दरिया का कारोबार करे,
क़तरा क्यूँकर समंदर का ऐतबार करे?

जब समंदर दरिया से कारोबार करे,
कोई क़तरा कहाँ जा के रोज़गार करे?

हरेक लम्हा जब नासमझ हाथों में हो,
सदी देखिये कैसी शक़्ल अख्तियार करे,

जिसे जाम का इल्म हो न पीने का शऊर,
मैक़दा आजकल ऐसों का इन्तज़ार करे...

-ऋतेश त्रिपाठी
२०.०७.२००८

यूँ तो अपनी जमा-पूँजी लुटाए बैठे हैं...

यूँ तो अपनी जमा-पूँजी लुटाए बैठे हैं,
लोग खुश हैं कि तजुर्बा कमाए बैठे हैं,

ख़बर नहीं उन्हें कि फ़सल डूब रही है,
वो लोग दरिया को मुद्दा बनाए बैठे हैं,

औलाद बेच कर खरीद लाए थे मगर,
माँ-बाप रोटियाँ सीने से लगाए बैठे हैं,

जब भी सोचता हूँ कि हक़ की बात हो,
ये देखता हूँ वो आस्तीनें चढाए बैठे हैं,

अक्सर जो मुझसे शतरंज में हारते रहे,
वो लोग आजकल चौसर जमाए बैठे हैं,

सोच कभी क्यूँ मैं उफ़्फ़ ! नहीं करता,
सौ रिश्ते मुझसे आसरा लगाए बैठे हैं,

आप को अज़ीज रोशनदानों से रोशनी,
सय्याद जंगलों में जाल बिछाए बैठे हैं...

-ऋतेश त्रिपाठी
१७.०७.२००८

क्या खूब इन उजालों ने ये साजिश की है...

क्या खूब इन उजालों ने ये साजिश की है,
हम अपना घर भी जलाएँ ये गुज़ारिश की है,

तू ग़मगीं है कि तुझे ज़रूरत से कम मिला,
वो खुशगुमान है कि उसने नवाज़िश की है,

तुमने दरिया पे ख़तरे की मनादी कर दी,
हमने अगर क़तरों की भी ख्वाहिश की है,

हश्र सोचिये कि उन मिन्नतों का क्या होगा,
लोग गूँगे हैं और बहरों से सिफ़ारिश की है,

अब जब के मैं यहाँ टूट के बिखरा पड़ा हूँ,
हर शख्स ने अपने ज़ख्म की नुमाइश की है,

लहरें मेरी कश्ती को किनारे लगने नहीं देतीं,
और हमने एक उम्र दरिया की परस्तिश की है...

-ऋतेश त्रिपाठी
०७.०७.२००८

या तुझे राह-ए-मक़्तल दिखाई नहीं देती....

या तुझे राह-ए-मक़्तल दिखाई नहीं देती,
या तेरी चीख मद्धम है सुनाई नहीं देती,

सुना है मज़ार के उर्स पर बाँटे है मिठाई,
गो बुढ़िया ख़ैरात में कभी पाई नहीं देती,

उन्हें उम्मीद कि अबके अच्छी हो फ़सल,
हमें बारिश किसी सिम्त दिखाई नहीं देती,

वही लोग बने बैठे हैं अब खबरी यहाँ पर,
घर की दहलीज़ जिनको रिहाई नहीं देती,

अब भी जलते हैं जो मैंने जलाए थे चराग़,
रोशनी है कि मेरे हक़ में गवाही नहीं देती,

एक मौत है कब मेरे नाम का फ़तवा पढ़ दे,
एक ज़िंदगी है कि ज़रा भी सफ़ाई नहीं देती,

तू मसीहा है अगर तुझको मुनासिब है सलीब,
तक़दीर यूँ ही किसी को रहनुमाई नहीं देती...

-ऋतेश त्रिपाठी
०२.०७.२००८

(दूसरे शे'र में इंगित "बुढ़िया" आजकल हमारे देश की सबसे प्रभावशाली औरत है. उम्मीद है कि बाकी बिंब साफ़ हैं)

इंसान को इंसान का डर है....

इंसान को इंसान का डर है,
दिल में इक अंजान सा डर है,

वक़्त तले कहीं पिस ना जाऊँ,
बेबस से अरमान का डर है,

खामोश फिज़ाएँ बता रहीं हैं,
अम्बर को तूफान का डर है,

कब किस ओर चलेगा नश्तर,
किया जो उस एहसान का डर है,

साहब शायद मेरी सुन लें,
मुझको तो दरबान का डर है,

पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
अब किसको भगवान का डर है?

ऋतेश त्रिपाठी
२००५ का कोई महीना

ख़ता मेरी मुझे बताइये....

ख़ता मेरी मुझे बताइये,
नाहक न पत्थर उठाइये,

खिचड़ी अभी नहीं पकी?
ठंडे चूल्हे फिर सुलगाइये,

इश्क़ में जिस्म लाज़िम है,
दिल मिलाइये,न मिलाइये,

ख़ुशी दुल्हन एक रात की,
रोज़ नया बिस्तर सजाइये,

आपको बटुए की पड़ी है,
अपना गला तो बचाइये!

-ऋतेश त्रिपाठी
२००५ का कोई महीना

वक़्त के साथ मन्ज़र बदल गये...

वक़्त के साथ मन्ज़र बदल गये,
साये दीवारों के आगे निकल गये,

मज़ा ये कि तेरे इन बाज़ारों में ,
उनके खोटे सिक्के भी चल गये,

हमने आज़मा लिये सारे हातिम,
तुम हो कि किस्सों से बहल गये,

ज़रा सी बारिश गर्मियों में क्या हुई,
तमाम शहर के पाँव फ़िसल गये,

उनको हमारी गरीबी से खौफ़ था,
घर के आईनों पे राख मल गये,

यूँ आग चंद तिनकों में लगी थी,
वहाँ जंगल के जंगल जल गये....

-ऋतेश त्रिपाठी
२००४ का कोई महीना

यूँ गूँगी तो अपनी विरासत नहीं थी....

यूँ गूँगी तो अपनी विरासत नहीं थी,
लब खोलने की पर इजाज़त नहीं थी,

जिन्हें मौलवी कब से दुहरा रहे हैं,
इन कुरानों में ऐसी इबारत नहीं थी,

हद है कि वो पसलियों से खफ़ा थे,
उन्हें चाकुओं से शिकायत नहीं थी,

बहुत देर से वो भी सजदा-रवाँ हैं,
उन्हें सर झुकाने की आदत नहीं थी,

खता-ए-नज़र क्या जो तहज़ीब भूली,
उन नज़ारों में कोई नफ़ासत नहीं थी,

इस दौर के सब ख़ुदाओं के सदके!
बंदगी कहीं भी सलामत नहीं थी,

उजालों की बस्ती में ख़तरा बहुत है,
अँधेरों में यूँ भी शराफ़त नहीं थी...

-ऋतेश त्रिपाठी
२६.०६.२००८

जवान बच्चा...

मैनें 6 साल के एक बच्चे से पूछा-,
"बेटा तुम्हें "कार्टून नेटवर्क" और "निक्लोडिअन" में से कौन ज़्यादा पसन्द है?"
बच्चा बोला-"अन्कल आप किस ज़माने की बात करते हैं,
मैं क्या बच्चा हूँ जो कार्टून दिखाने की बात करते हैं,
मेरी ज़िन्दगी "फ़ैशन टी.वी." की पाबन्द है,
"ज़ूम" की भी बुलन्दी बुलन्द है,
और आजकल मज़ा नहीं आता क्यूँकि टेलिकास्ट बंद है,
वर्ना सच बताऊँ तो अन्कल जी,
टी।बी.6 मेरी पहली पसन्द है !

मैनें बच्चे से पूछा-
"बेटा तुम्हारा परिवार कैसा है,
तुम्हारे माता-पिता का व्यवहार कैसा है?"
बच्चा बोला- अन्कल,
आपने निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार का हाल जानने को,
बिल्कुल ठीक नमूना खोजा है,
मेरे घर की हालत बिल्कुल वैसी है,
जैसे आपके नये जूते के अन्दर,
एक फटा हुआ मोजा है!

मेरे पापा जब आफ़िस से घर आते हैं,
पेग पर पेग बनाते हैं,
बोतलें खत्म होने पर सिगरेटें सुलगाते हैं,
और पते की बात बताऊँ अन्कल,
महीने की आखिर में तो बीड़ीयों पे उतर आते हैं!

आफिस से माँ अगर देर से घर लौटे,
तो खरी खोटी सुनाते हैं,
वैसे कालोनी में उनका व्यवहार बहुत अच्छा है,
इसलिये पड़ोस की ऱीना आंटी को डार्लिंग,
और बगल वाली गीता आंटी को जानेमन कह कर बुलाते हैं" !

इतनी देर में मैं बच्चे की प्रखर बुद्धी जान चुका था,
उसकी जवान सोच पहचान चुका था,
मैनें उससे कहा कि-
"बेटे- तुम जो भी फरमाते हो,
बिलकुल ठीक फरमाते हो,
ये बताओ,
विकास की दौड़ में तुम भारत को कहाँ पाते हो?"

बच्चा कुछ देर चुप रहा,
फिर गंभीर होकर धीरे से बोला-
"आज भले ही हमारे पास परमाणु बम है,
अंतरिक्ष और चाँद पर हमारा क़दम है,
हमारी बातों में वज़न, हमारी तकनीक में दम है,
पर आप ही सोचिये अन्कल जी,
मेरे देश में भूखों के लिये रोटियाँ भी तो कम हैं,
यहाँ दहेज को सताई बहुओं की आँखें भी तो नम हैं,
मेरे देश के शरीर पर कपड़े भी तो कम हैं,
और आप कहते हैं विकास की दौड़ में हम हैं?

" ये हमारी सभ्यता का कौन सा रंग है?,
ये हमारी संस्कृति का कौन सा अंग है?,
ये जान लीजीये अन्कल जी,
कि जिस दिन ज़मीन से नाता हमारा टूट जायेगा,
ये विकास सारा हो झूठ जायेगा,
हमारा भाग्य हमसे रूठ जायेगा,
ये मेरा भारत टूट जायेगा,
हम सब का भारत टूट जायेगा.....

-ऋतेश त्रिपाठी
२००४

लोकतन्त्र...

ये सन् 2000 में लिखी गई मेरी आरंभिक रचनाओं में से एक है. इस पर खूब पुरस्कार भी मिले स्कूल के दिनों में. आप भी देखें-

12 बज चुके थे,
अखबार के कार्यालय में,
एडीटर साहब परेशान थे,
थोड़े हैरान थे,
आखिर इस शहर को हुआ क्या?
न कोई क़त्ल,
न डकैती, न छिनैती,
न तोड़-फोड़,न छेड़छाड़,
न बलात्कार, न देह व्यापार,
न धरना, न प्रदर्शन,
न ही किसी पार्टी की रैली,
कैसे बदली शहरी शैली?
-----------------------------
अचानक फोन घनघनाया,
एडिटर साहब ने लपक-कर फ़ोन उठाया,
आवाज़ आई,
"कालगर्ल के साथ रंगरेलियाँ मनाते मंत्री जी गिरफ़्तार,
पर किये सारे आरोप अस्वीकार,
बोले- "भले ये लड़की जवान है,
पर मेरी बेटी समान है,
इसे सेक्रेटरी बनाने के लिये बुलाया था,
क्यूँकि ये महिला उत्त्थान का साल है,
पर जाने क्यूँ,
पहले ही उत्त्थान पर इतना बवाल है?
"समर्थकों ने कहा -
"ये विरोधियों की चाल है,
पकड़ी गई लड़की, विरोधी नेता का ही माल है,"
---------------------------
दोनों गुटों में हाथा-पाई,
जन-सम्पत्ति में आग लगाई,
बाज़ार लूटा,गोली चलाई,
कुछ दर्शक ढेर,
देह ठंडी, आत्मा स्वतन्त्र,
वाह रे लोकतन्त्र !
---------------------------
शाम तक,
एडीटर साहब थक चुके थे,
चेहरे पर सन्तुष्टि,
अखबार में मसाला,
लोकतन्त्र की प्याली में,
अपराधों की हाला,
विचारों का "मन्थन" कर गोल,
विह्स्की की बोतल खोल,
वो धीरे से पड़े बोल,
"कभी धूप कभी छाया है,
सब लोकतन्त्र की माया है!"

-ऋतेश त्रिपाठी

इरादे बागबाँ के कामयाब हो लिये....

इरादे बागबाँ के कामयाब हो लिये,
जितने भी बबूल थे गुलाब हो लिये,

अपने वास्ते थे जो पहेली एक उम्र,
उनके हाथ आए तो किताब हो लिये,

ऐ दोस्त ! तेरे मशवरों का शुक्रिया,
हालात अपने और भी खराब हो लिये,

देख सही कितना अँधेरा है आजकल,
जुगनू यहाँ आ के आफ्ताब हो लिये,

हैरत कि अभी तेरी बुतपरस्ती नहीं गई,
सच बुतक़दों के सभी बेनकाब हो लिये...

-ऋतेश त्रिपाठी
२०.०६.२००८

परंपरा का निर्वहन होता रहेगा....

परंपरा का निर्वहन होता रहेगा,
बस होलिका दहन होता रहेगा,

युवा सुधार की बातें भी होंगी,
बूढों का वेश्यागमन होता रहेगा,

शर्म आए तो पट्टी बाँध लेना,
सत्य यूँ ही निर्वसन होता रहेगा,

गोधूलि में नित विदेशी खुलेगी,
मुँह-अंधेरे आचमन होता रहेगा...

-ऋतेश त्रिपाठी
2007 का कोई महीना

महफूज़ियत के इंतज़ाम सब नाकाम हो गये.....

महफूज़ियत के इंतज़ाम सब नाकाम हो गये,
इस शहर में हादसे अब आम हो गये,

कुछ खास मंडियों में रोशनी को बेचकर,
रहनुमा इस दौर के गुमनाम हो गये,

इक उम्र मौसिकी से अदावत उन्हें रही,
वो बज़्म-ए-सियासत में खय्याम हो गये,

अंगूर से बचाते थे अपना साया एक रोज़,
वही शेख मयक़दे में बेलगाम हो गये.....

-ऋतेश त्रिपाठी
2006 का कोई महीना

ख‌रीदी हुई कॊई दासी दिख‌ रही है...

ख‌रीदी हुई कॊई दासी दिख‌ रही है,
तॆरी हँसी में भी एक‌ उदासी दिख‌ रही है,

कल बनॆगी यही मुहब्बत जानलॆवा,
जो खलिश आज ज़रा सी दिख‌ रही है,

अशर्फियों कि सॊह्बत में रहकर,
तॆरी हर एक‌ अदा सियासी दिख‌ रही है,

अगर सच है खुदा लुटाता है मुहब्बत,
हर रूह फिर क्यों प्यासी दिख‌ र‌ही है,

आदमी मैं इत‌ना अच्छा तॊ न था,
मॆरी मौत प‌र भीड़ खासी दिख‌ र‌ही है...

-ॠतेश त्रिपाठी
11/11/06

जॊ दुआ क़ुबूल हॊ तॊ यॆ असर आयॆ...

जॊ दुआ क़ुबूल हॊ तॊ यॆ असर आयॆ,
तीरगी दॆर‌ तक रही है अब सहर आयॆ,

घर है मगर‌ न ज़मीं न आसमाँ अपना,
कैसॆ इस‌ शहर मॆ जीनॆ का हुनर आयॆ,

हाल‍ ए दिल अपना भी इधर ठीक नहीं,
वॊ भी रुसवा हैं आजकल यॆ खबर आयॆ,

तन्हाई किसी कॊ आवारा बना दॆगी दॊस्त‌,
रात जब बीत चली तॊ हम भी घर आयॆ,

यॆ क्या कि बॆच दियॆ दीन भी ईमान भी,
आदमी आदमी है तॊ आदमी नज़र आयॆ,

इरादा दॊस्तॊं ने तब बदल लिया "मन्थन",
रास्ता पुरखार, मॆरॆ हिस्सॆ मॆं सफऱ आये !

- ऋतेश त्रिपाठी
11.01.2008

मुझको एक शब का विसाल दे...

मुझको एक शब का विसाल दे,
और फिर उम्र भर का मलाल दे,

जो फूल हूँ तो सीने से लगा,
जो ख़ार हूँ तो निकाल दे,

मुझे गिरा कि मेरा गुरूर टूटे,
जो गिरूँ तो फिर सभाँल दे,

सिगरेट कि तरह् जला मुझे,
इक कश के बाद उछाल दे....

-ऋतेश त्रिपाठी
16.06.2008

ख़बर अच्छी है भूख के शिकारों के लिये....

ख़बर अच्छी है भूख के शिकारों के लिये,
हुक्मराँ ख़रीद रहे हैं क़फ़न हज़ारों के लिये,

सबको मालूम कि उस तरफ़ उथला है पानी,
कश्तियाँ फिर भी बेचैन हैं किनारों के लिये,

इक तो आदमी भी बहुत सस्ते थे वहाँ,
कुछ ईंटें भी कम पड़ीं थीं दीवारों के लिये,

चन्द गीली लकड़ियाँ,पागल सा एक शख्स,
फिरता था रात शहर मे शरारों के लिये,

उसने भी सीख लिया अश्क़ छुपाने का हुनर,
हम भी तैयार हैं दिल-फ़रेब नज़ारों के लिये...

-ऋतेश त्रिपाठी
१६.०६.२००८

कालेज के दिनों में लिखीं कुछ पन्क्तियाँ...

हमसफ़र छोड़ कर जो भी जाते रहे,
हर घड़ी हर पहर याद आते रहे,

मन्ज़िलों की तरफ़ उठ गये पाँव जो,
ये दीवार और दर और ये घर उम्र भर,
देके आवाज़ उनको बुलाते रहे,

हिचकियों की ज़ुबाँ तुम ना समझे कभी,
हम हिचकियों से ही तुमको बुलाते रहे...

ऋतेश त्रिपाठी
2007 का कोई महीना

रमज़ान बीता तो रवायत बदल गई...

रमज़ान बीता तो रवायत बदल गई,
ख़ुदा वही है मगर इबादत बदल गई,

वो क़त्ल करते हैं तो देते हैं क़फ़न भी,
कौन कहता है शरीफ़ों की शराफ़त बदल गई,

बचपन में बोझ से ये काँधे टूटते रहे,
वारिस जवाँ हुए तो विरासत बदल गई,

जहाँ सराय तय थी वहाँ बँगले बन गये,
ईंटें हैरान हैं कि कैसे इमारत बदल गई,

उनके घर आग लगी तो कुआँ भूले ,
मौका वही है मौके की नज़ाकत बदल गई,

अब भी ये उम्मीद कि इन्साफ़ है यहाँ,
मुंसिफ़ बदल गये मियाँ ये अदालत बदल गई....

-ऋतेश त्रिपाठी
2006 का कोई महीना

हैरत का इक खज़ाना मिलेगा....

हैरत का इक खज़ाना मिलेगा,
शहरों में बचपन सयाना मिलेगा,

सुना था कि दिल्ली में मिलती है रोटी,
खबर क्या वहाँ भी फ़साना मिलेगा,

बाज़ार बिस्तर तक आ गया है,
तरक्की का अब क्या पैमाना मिलेगा,

सभी ने गिराई थी मिलकर के मस्जिद,
सुना है ख़ुदा को हर्ज़ाना मिलेगा,

इस उम्मीद पर कोख बिक गई कि,
चलो नौ महीने तो दाना मिलेगा,

यही सोच कर दिल्लगी कर ली "मंथन",
किसी तीर को फ़िर निशाना मिलेगा !

- ऋतेश त्रिपाठी
09.03.2008

भुखमरी को कुपोषण का नाम देगी...

भुखमरी को कुपोषण का नाम देगी,
सियासत इक और ज़ुर्म अंजाम देगी,

ये बचपन देख कर सोचता हूँ,
थकी हो सुबह तो क्या शाम देगी,

वो इस सोच में फिर बिकने चली है,
आज अस्मत का दुनिया क्या दाम देगी,

रहनुमा की सियासत का मारा हुआ हूँ,
रह्जनी शायद मुझको आराम देगी...

-ऋतेश त्रिपाठी
०९.०३.२००८

वो बेकार कल भी था,आज भी है...

वो बेकार कल भी था,आज भी है,
ये रोज़गार कल भी था,आज भी है,

ख़तरों का दौर हो या दौर के खतरे,
गरीब शिकार कल भी था,आज भी है,

अकीदों की दुआऑं में अब असर कहाँ,
वही मज़ार कल भी था,आज भी है,

इश्क़ बूढा सही,मगर ज़िन्दा है अभी,
वो निसार कल भी था, आज भी है...

-ऋतेश त्रिपाठी
22.03.2008

पारसा पे तोहमत बेईमानी की....

पारसा पे तोहमत बेईमानी की,
इंतहा खूब हुई कहानी की,

बरहमन कोई प्यासा मरा है,
ज़ात दूसरी थी वहाँ पानी की,

आपने मेरा गला नहीं काटा,
आपने बहुत मेहरबानी की,

सूली पे चढो और उफ़्! न करो,
यही कीमत है तेरी बेज़ुबानी की,

फ़िक़्र-ए-दिल और ख्याल पेट का,
मुश्किलें कम नहीं हैं जवानी की...

-ऋतेश त्रिपाठी
09.04.2008

मेरा फ़ैसला जिसके बयान पे है...

मेरा फ़ैसला जिसके बयान पे है,
एक लकवा सा उसी ज़ुबान पे है,

ये पता नहीं किधर रुख करेगी हवा,
खुश है तिनका कि अब उडान पे है,

ख़ुदा बोले भी तो अब कौन सुनेगा,
ज़ोर अक़ीदों का फ़क़त अजान पे है,

हैरत कि इस बन्दूकों के दौर में भी,
तुम्हें भरोसा तीर-ओ-क़मान पे है,

गिनाती है रोज़ मुझे सिमटने के फ़ायदे,
उस हवेली की नज़र मेरे मकान पे है,

तेरी ख्वाहिश और टूटते तारे की उम्मीद,
ये नज़र फिर देर से आसमान पे है....

-ऋतेश त्रिपाठी
15.06.2008

कई दिनों से इधर उधर लिखता रहा हूँ.एक ब्लाग पहले भी था,मगर उसमें कविता/गज़लों से हटके भी कई सारे विषयों पर लिखा है,और इतना लिखा है कि कविता आसानी से दिखती नहीं.ये नया ब्लाग सिर्फ़ कविताओं/गज़लों के लिये बनाया है.मेरा लिखा हुआ अच्छा लगे तो सराहें, बुरा लगे तो बुरा कहने से परहेज़ ना करें....
-ऋतेश त्रिपाठी