तुझे गिला है कि दुआ में असर नहीं होता...

तुझे गिला है कि दुआ में असर नहीं होता,
मैं समझता हूँ कि ज़ुबाँ से सफ़र नहीं होता,

गरज़ बेखौफ़ थी कि गली बदनाम हो गई,
वर्ना सोच वही काम किसके घर नहीं होता,

नामर्द क़ौमों को हुकूमत से हो क्या हासिल,
नामर्द की बीवी को शौहर का डर नहीं होता,

हमारी गिड़गिड़ाने की बीमारी इतनी पुरानी है,
किसी हक़ीम का नुस्खा कारगर नहीं होता,

आदमी बेबाक हो तो मुसलसल चोट खाता है,
जिसे गर्दन नहीं होती उसे कोई डर नहीं होता,

बेहतर हो किसी साकी से मरासिम बढ़ाइए,
फ़क़्त मैख़ाना जाने से दामन तर नहीं होता...

ऋतेश त्रिपाठी
२३. ०७.२००८

2 comments:

  Anil Vohra

July 24, 2008 at 4:42 PM

Its a wonderful ghazal written by you, kahan apne dua se lekar namardgi tak ka safar kuch alfazon mein kiya hai, Ghazal itni achi thi ki akhir kee lines padtey lagaa ke kuch aur sher hone chahiye they. Kamaal kiya apney.

  अनूप भार्गव

July 27, 2008 at 9:37 AM

अच्छी लगी गज़ल ।
ये शेर विशेष रूप से :
>आदमी बेबाक हो तो मुसलसल चोट खाता है,
>जिसे गर्दन नहीं होती उसे कोई डर नहीं होता ।
ईकविता की तरफ़ देखिये :
http://launch.groups.yahoo.com/group/ekavita/