या तुझे राह-ए-मक़्तल दिखाई नहीं देती....

या तुझे राह-ए-मक़्तल दिखाई नहीं देती,
या तेरी चीख मद्धम है सुनाई नहीं देती,

सुना है मज़ार के उर्स पर बाँटे है मिठाई,
गो बुढ़िया ख़ैरात में कभी पाई नहीं देती,

उन्हें उम्मीद कि अबके अच्छी हो फ़सल,
हमें बारिश किसी सिम्त दिखाई नहीं देती,

वही लोग बने बैठे हैं अब खबरी यहाँ पर,
घर की दहलीज़ जिनको रिहाई नहीं देती,

अब भी जलते हैं जो मैंने जलाए थे चराग़,
रोशनी है कि मेरे हक़ में गवाही नहीं देती,

एक मौत है कब मेरे नाम का फ़तवा पढ़ दे,
एक ज़िंदगी है कि ज़रा भी सफ़ाई नहीं देती,

तू मसीहा है अगर तुझको मुनासिब है सलीब,
तक़दीर यूँ ही किसी को रहनुमाई नहीं देती...

-ऋतेश त्रिपाठी
०२.०७.२००८

(दूसरे शे'र में इंगित "बुढ़िया" आजकल हमारे देश की सबसे प्रभावशाली औरत है. उम्मीद है कि बाकी बिंब साफ़ हैं)

1 comments:

  "अर्श"

July 3, 2008 at 11:38 AM

अब भी जलते हैं जो मैंने जलाए थे चराग़,
रोशनी है कि मेरे हक़ में गवाही नहीं देती,
bahot khub kya bat hai sunder....badhai kubul karen...