इंसान को इंसान का डर है....

इंसान को इंसान का डर है,
दिल में इक अंजान सा डर है,

वक़्त तले कहीं पिस ना जाऊँ,
बेबस से अरमान का डर है,

खामोश फिज़ाएँ बता रहीं हैं,
अम्बर को तूफान का डर है,

कब किस ओर चलेगा नश्तर,
किया जो उस एहसान का डर है,

साहब शायद मेरी सुन लें,
मुझको तो दरबान का डर है,

पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
अब किसको भगवान का डर है?

ऋतेश त्रिपाठी
२००५ का कोई महीना

3 comments:

  Advocate Rashmi saurana

June 30, 2008 at 1:38 PM

itni choti si kavita me itni gahari bat kahane ke liye badhai. likhate rhe.

  "अर्श"

June 30, 2008 at 2:20 PM

bahot khub kya likha hai....shandar...

  Nitin

July 2, 2008 at 1:22 PM

good work dear....keep rocking