महफूज़ियत के इंतज़ाम सब नाकाम हो गये.....

महफूज़ियत के इंतज़ाम सब नाकाम हो गये,
इस शहर में हादसे अब आम हो गये,

कुछ खास मंडियों में रोशनी को बेचकर,
रहनुमा इस दौर के गुमनाम हो गये,

इक उम्र मौसिकी से अदावत उन्हें रही,
वो बज़्म-ए-सियासत में खय्याम हो गये,

अंगूर से बचाते थे अपना साया एक रोज़,
वही शेख मयक़दे में बेलगाम हो गये.....

-ऋतेश त्रिपाठी
2006 का कोई महीना

4 comments:

  Udan Tashtari

June 20, 2008 at 5:11 AM

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

  Amit K Sagar

June 20, 2008 at 4:50 PM

उम्दा. शेष कहना चाहूँगा की अपने ब्लॉग को थोड़ी सी और मेहनत से सुन्दरता बक्शें. हिन्दी भी पढ़ने में नहीं आरही है. शुभकामनायें.
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उल्टा तीर

  jasvir saurana

June 20, 2008 at 7:24 PM

sundar rachana.badhai ho. aap apna word verification hata le taki humko tipani dene me aasani ho.

  ऋतेश त्रिपाठी

June 21, 2008 at 11:07 AM

aap logon kaa bahut bahut shukriyaa.