इंसान को इंसान का डर है,
दिल में इक अंजान सा डर है,
वक़्त तले कहीं पिस ना जाऊँ,
बेबस से अरमान का डर है,
खामोश फिज़ाएँ बता रहीं हैं,
अम्बर को तूफान का डर है,
कब किस ओर चलेगा नश्तर,
किया जो उस एहसान का डर है,
साहब शायद मेरी सुन लें,
मुझको तो दरबान का डर है,
पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
अब किसको भगवान का डर है?
ऋतेश त्रिपाठी
२००५ का कोई महीना
इंसान को इंसान का डर है....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Monday, June 30, 2008 at 11:24 AM
ख़ता मेरी मुझे बताइये....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Sunday, June 29, 2008 at 6:25 PM
ख़ता मेरी मुझे बताइये,
नाहक न पत्थर उठाइये,
खिचड़ी अभी नहीं पकी?
ठंडे चूल्हे फिर सुलगाइये,
इश्क़ में जिस्म लाज़िम है,
दिल मिलाइये,न मिलाइये,
ख़ुशी दुल्हन एक रात की,
रोज़ नया बिस्तर सजाइये,
आपको बटुए की पड़ी है,
अपना गला तो बचाइये!
-ऋतेश त्रिपाठी
२००५ का कोई महीना
वक़्त के साथ मन्ज़र बदल गये...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:43 PM
वक़्त के साथ मन्ज़र बदल गये,
साये दीवारों के आगे निकल गये,
मज़ा ये कि तेरे इन बाज़ारों में ,
उनके खोटे सिक्के भी चल गये,
हमने आज़मा लिये सारे हातिम,
तुम हो कि किस्सों से बहल गये,
ज़रा सी बारिश गर्मियों में क्या हुई,
तमाम शहर के पाँव फ़िसल गये,
उनको हमारी गरीबी से खौफ़ था,
घर के आईनों पे राख मल गये,
यूँ आग चंद तिनकों में लगी थी,
वहाँ जंगल के जंगल जल गये....
-ऋतेश त्रिपाठी
२००४ का कोई महीना
यूँ गूँगी तो अपनी विरासत नहीं थी....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Friday, June 27, 2008 at 10:42 AM
यूँ गूँगी तो अपनी विरासत नहीं थी,
लब खोलने की पर इजाज़त नहीं थी,
जिन्हें मौलवी कब से दुहरा रहे हैं,
इन कुरानों में ऐसी इबारत नहीं थी,
हद है कि वो पसलियों से खफ़ा थे,
उन्हें चाकुओं से शिकायत नहीं थी,
बहुत देर से वो भी सजदा-रवाँ हैं,
उन्हें सर झुकाने की आदत नहीं थी,
खता-ए-नज़र क्या जो तहज़ीब भूली,
उन नज़ारों में कोई नफ़ासत नहीं थी,
इस दौर के सब ख़ुदाओं के सदके!
बंदगी कहीं भी सलामत नहीं थी,
उजालों की बस्ती में ख़तरा बहुत है,
अँधेरों में यूँ भी शराफ़त नहीं थी...
-ऋतेश त्रिपाठी
२६.०६.२००८
जवान बच्चा...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Wednesday, June 25, 2008 at 4:44 PM
मैनें 6 साल के एक बच्चे से पूछा-,
"बेटा तुम्हें "कार्टून नेटवर्क" और "निक्लोडिअन" में से कौन ज़्यादा पसन्द है?"
बच्चा बोला-"अन्कल आप किस ज़माने की बात करते हैं,
मैं क्या बच्चा हूँ जो कार्टून दिखाने की बात करते हैं,
मेरी ज़िन्दगी "फ़ैशन टी.वी." की पाबन्द है,
"ज़ूम" की भी बुलन्दी बुलन्द है,
और आजकल मज़ा नहीं आता क्यूँकि टेलिकास्ट बंद है,
वर्ना सच बताऊँ तो अन्कल जी,
टी।बी.6 मेरी पहली पसन्द है !
मैनें बच्चे से पूछा-
"बेटा तुम्हारा परिवार कैसा है,
तुम्हारे माता-पिता का व्यवहार कैसा है?"
बच्चा बोला- अन्कल,
आपने निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार का हाल जानने को,
बिल्कुल ठीक नमूना खोजा है,
मेरे घर की हालत बिल्कुल वैसी है,
जैसे आपके नये जूते के अन्दर,
एक फटा हुआ मोजा है!
मेरे पापा जब आफ़िस से घर आते हैं,
पेग पर पेग बनाते हैं,
बोतलें खत्म होने पर सिगरेटें सुलगाते हैं,
और पते की बात बताऊँ अन्कल,
महीने की आखिर में तो बीड़ीयों पे उतर आते हैं!
आफिस से माँ अगर देर से घर लौटे,
तो खरी खोटी सुनाते हैं,
वैसे कालोनी में उनका व्यवहार बहुत अच्छा है,
इसलिये पड़ोस की ऱीना आंटी को डार्लिंग,
और बगल वाली गीता आंटी को जानेमन कह कर बुलाते हैं" !
इतनी देर में मैं बच्चे की प्रखर बुद्धी जान चुका था,
उसकी जवान सोच पहचान चुका था,
मैनें उससे कहा कि-
"बेटे- तुम जो भी फरमाते हो,
बिलकुल ठीक फरमाते हो,
ये बताओ,
विकास की दौड़ में तुम भारत को कहाँ पाते हो?"
बच्चा कुछ देर चुप रहा,
फिर गंभीर होकर धीरे से बोला-
"आज भले ही हमारे पास परमाणु बम है,
अंतरिक्ष और चाँद पर हमारा क़दम है,
हमारी बातों में वज़न, हमारी तकनीक में दम है,
पर आप ही सोचिये अन्कल जी,
मेरे देश में भूखों के लिये रोटियाँ भी तो कम हैं,
यहाँ दहेज को सताई बहुओं की आँखें भी तो नम हैं,
मेरे देश के शरीर पर कपड़े भी तो कम हैं,
और आप कहते हैं विकास की दौड़ में हम हैं?
" ये हमारी सभ्यता का कौन सा रंग है?,
ये हमारी संस्कृति का कौन सा अंग है?,
ये जान लीजीये अन्कल जी,
कि जिस दिन ज़मीन से नाता हमारा टूट जायेगा,
ये विकास सारा हो झूठ जायेगा,
हमारा भाग्य हमसे रूठ जायेगा,
ये मेरा भारत टूट जायेगा,
हम सब का भारत टूट जायेगा.....
-ऋतेश त्रिपाठी
२००४
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लोकतन्त्र...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Saturday, June 21, 2008 at 4:14 PM
ये सन् 2000 में लिखी गई मेरी आरंभिक रचनाओं में से एक है. इस पर खूब पुरस्कार भी मिले स्कूल के दिनों में. आप भी देखें-
12 बज चुके थे,
अखबार के कार्यालय में,
एडीटर साहब परेशान थे,
थोड़े हैरान थे,
आखिर इस शहर को हुआ क्या?
न कोई क़त्ल,
न डकैती, न छिनैती,
न तोड़-फोड़,न छेड़छाड़,
न बलात्कार, न देह व्यापार,
न धरना, न प्रदर्शन,
न ही किसी पार्टी की रैली,
कैसे बदली शहरी शैली?
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अचानक फोन घनघनाया,
एडिटर साहब ने लपक-कर फ़ोन उठाया,
आवाज़ आई,
"कालगर्ल के साथ रंगरेलियाँ मनाते मंत्री जी गिरफ़्तार,
पर किये सारे आरोप अस्वीकार,
बोले- "भले ये लड़की जवान है,
पर मेरी बेटी समान है,
इसे सेक्रेटरी बनाने के लिये बुलाया था,
क्यूँकि ये महिला उत्त्थान का साल है,
पर जाने क्यूँ,
पहले ही उत्त्थान पर इतना बवाल है?
"समर्थकों ने कहा -
"ये विरोधियों की चाल है,
पकड़ी गई लड़की, विरोधी नेता का ही माल है,"
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दोनों गुटों में हाथा-पाई,
जन-सम्पत्ति में आग लगाई,
बाज़ार लूटा,गोली चलाई,
कुछ दर्शक ढेर,
देह ठंडी, आत्मा स्वतन्त्र,
वाह रे लोकतन्त्र !
---------------------------
शाम तक,
एडीटर साहब थक चुके थे,
चेहरे पर सन्तुष्टि,
अखबार में मसाला,
लोकतन्त्र की प्याली में,
अपराधों की हाला,
विचारों का "मन्थन" कर गोल,
विह्स्की की बोतल खोल,
वो धीरे से पड़े बोल,
"कभी धूप कभी छाया है,
सब लोकतन्त्र की माया है!"
-ऋतेश त्रिपाठी
इरादे बागबाँ के कामयाब हो लिये....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 9:59 AM
इरादे बागबाँ के कामयाब हो लिये,
जितने भी बबूल थे गुलाब हो लिये,
अपने वास्ते थे जो पहेली एक उम्र,
उनके हाथ आए तो किताब हो लिये,
ऐ दोस्त ! तेरे मशवरों का शुक्रिया,
हालात अपने और भी खराब हो लिये,
देख सही कितना अँधेरा है आजकल,
जुगनू यहाँ आ के आफ्ताब हो लिये,
हैरत कि अभी तेरी बुतपरस्ती नहीं गई,
सच बुतक़दों के सभी बेनकाब हो लिये...
-ऋतेश त्रिपाठी
२०.०६.२००८
परंपरा का निर्वहन होता रहेगा....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Friday, June 20, 2008 at 11:55 AM
परंपरा का निर्वहन होता रहेगा,
बस होलिका दहन होता रहेगा,
युवा सुधार की बातें भी होंगी,
बूढों का वेश्यागमन होता रहेगा,
शर्म आए तो पट्टी बाँध लेना,
सत्य यूँ ही निर्वसन होता रहेगा,
गोधूलि में नित विदेशी खुलेगी,
मुँह-अंधेरे आचमन होता रहेगा...
-ऋतेश त्रिपाठी
2007 का कोई महीना
महफूज़ियत के इंतज़ाम सब नाकाम हो गये.....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Thursday, June 19, 2008 at 2:13 PM
महफूज़ियत के इंतज़ाम सब नाकाम हो गये,
इस शहर में हादसे अब आम हो गये,
कुछ खास मंडियों में रोशनी को बेचकर,
रहनुमा इस दौर के गुमनाम हो गये,
इक उम्र मौसिकी से अदावत उन्हें रही,
वो बज़्म-ए-सियासत में खय्याम हो गये,
अंगूर से बचाते थे अपना साया एक रोज़,
वही शेख मयक़दे में बेलगाम हो गये.....
-ऋतेश त्रिपाठी
2006 का कोई महीना
खरीदी हुई कॊई दासी दिख रही है...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 11:13 AM
खरीदी हुई कॊई दासी दिख रही है,
तॆरी हँसी में भी एक उदासी दिख रही है,
कल बनॆगी यही मुहब्बत जानलॆवा,
जो खलिश आज ज़रा सी दिख रही है,
अशर्फियों कि सॊह्बत में रहकर,
तॆरी हर एक अदा सियासी दिख रही है,
अगर सच है खुदा लुटाता है मुहब्बत,
हर रूह फिर क्यों प्यासी दिख रही है,
आदमी मैं इतना अच्छा तॊ न था,
मॆरी मौत पर भीड़ खासी दिख रही है...
-ॠतेश त्रिपाठी
11/11/06
जॊ दुआ क़ुबूल हॊ तॊ यॆ असर आयॆ...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 10:57 AM
जॊ दुआ क़ुबूल हॊ तॊ यॆ असर आयॆ,
तीरगी दॆर तक रही है अब सहर आयॆ,
घर है मगर न ज़मीं न आसमाँ अपना,
कैसॆ इस शहर मॆ जीनॆ का हुनर आयॆ,
हाल ए दिल अपना भी इधर ठीक नहीं,
वॊ भी रुसवा हैं आजकल यॆ खबर आयॆ,
तन्हाई किसी कॊ आवारा बना दॆगी दॊस्त,
रात जब बीत चली तॊ हम भी घर आयॆ,
यॆ क्या कि बॆच दियॆ दीन भी ईमान भी,
आदमी आदमी है तॊ आदमी नज़र आयॆ,
इरादा दॊस्तॊं ने तब बदल लिया "मन्थन",
रास्ता पुरखार, मॆरॆ हिस्सॆ मॆं सफऱ आये !
- ऋतेश त्रिपाठी
11.01.2008
मुझको एक शब का विसाल दे...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Tuesday, June 17, 2008 at 11:58 AM
मुझको एक शब का विसाल दे,
और फिर उम्र भर का मलाल दे,
जो फूल हूँ तो सीने से लगा,
जो ख़ार हूँ तो निकाल दे,
मुझे गिरा कि मेरा गुरूर टूटे,
जो गिरूँ तो फिर सभाँल दे,
सिगरेट कि तरह् जला मुझे,
इक कश के बाद उछाल दे....
-ऋतेश त्रिपाठी
16.06.2008
ख़बर अच्छी है भूख के शिकारों के लिये....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 11:43 AM
ख़बर अच्छी है भूख के शिकारों के लिये,
हुक्मराँ ख़रीद रहे हैं क़फ़न हज़ारों के लिये,
सबको मालूम कि उस तरफ़ उथला है पानी,
कश्तियाँ फिर भी बेचैन हैं किनारों के लिये,
इक तो आदमी भी बहुत सस्ते थे वहाँ,
कुछ ईंटें भी कम पड़ीं थीं दीवारों के लिये,
चन्द गीली लकड़ियाँ,पागल सा एक शख्स,
फिरता था रात शहर मे शरारों के लिये,
उसने भी सीख लिया अश्क़ छुपाने का हुनर,
हम भी तैयार हैं दिल-फ़रेब नज़ारों के लिये...
-ऋतेश त्रिपाठी
१६.०६.२००८
कालेज के दिनों में लिखीं कुछ पन्क्तियाँ...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Monday, June 16, 2008 at 2:40 PM
हमसफ़र छोड़ कर जो भी जाते रहे,
हर घड़ी हर पहर याद आते रहे,
मन्ज़िलों की तरफ़ उठ गये पाँव जो,
ये दीवार और दर और ये घर उम्र भर,
देके आवाज़ उनको बुलाते रहे,
हिचकियों की ज़ुबाँ तुम ना समझे कभी,
हम हिचकियों से ही तुमको बुलाते रहे...
ऋतेश त्रिपाठी
2007 का कोई महीना
रमज़ान बीता तो रवायत बदल गई...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:19 PM
रमज़ान बीता तो रवायत बदल गई,
ख़ुदा वही है मगर इबादत बदल गई,
वो क़त्ल करते हैं तो देते हैं क़फ़न भी,
कौन कहता है शरीफ़ों की शराफ़त बदल गई,
बचपन में बोझ से ये काँधे टूटते रहे,
वारिस जवाँ हुए तो विरासत बदल गई,
जहाँ सराय तय थी वहाँ बँगले बन गये,
ईंटें हैरान हैं कि कैसे इमारत बदल गई,
उनके घर आग लगी तो कुआँ भूले ,
मौका वही है मौके की नज़ाकत बदल गई,
अब भी ये उम्मीद कि इन्साफ़ है यहाँ,
मुंसिफ़ बदल गये मियाँ ये अदालत बदल गई....
-ऋतेश त्रिपाठी
2006 का कोई महीना
हैरत का इक खज़ाना मिलेगा....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:15 PM
हैरत का इक खज़ाना मिलेगा,
शहरों में बचपन सयाना मिलेगा,
सुना था कि दिल्ली में मिलती है रोटी,
खबर क्या वहाँ भी फ़साना मिलेगा,
बाज़ार बिस्तर तक आ गया है,
तरक्की का अब क्या पैमाना मिलेगा,
सभी ने गिराई थी मिलकर के मस्जिद,
सुना है ख़ुदा को हर्ज़ाना मिलेगा,
इस उम्मीद पर कोख बिक गई कि,
चलो नौ महीने तो दाना मिलेगा,
यही सोच कर दिल्लगी कर ली "मंथन",
किसी तीर को फ़िर निशाना मिलेगा !
- ऋतेश त्रिपाठी
09.03.2008
भुखमरी को कुपोषण का नाम देगी...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:12 PM
भुखमरी को कुपोषण का नाम देगी,
सियासत इक और ज़ुर्म अंजाम देगी,
ये बचपन देख कर सोचता हूँ,
थकी हो सुबह तो क्या शाम देगी,
वो इस सोच में फिर बिकने चली है,
आज अस्मत का दुनिया क्या दाम देगी,
रहनुमा की सियासत का मारा हुआ हूँ,
रह्जनी शायद मुझको आराम देगी...
-ऋतेश त्रिपाठी
०९.०३.२००८
वो बेकार कल भी था,आज भी है...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:07 PM
वो बेकार कल भी था,आज भी है,
ये रोज़गार कल भी था,आज भी है,
ख़तरों का दौर हो या दौर के खतरे,
गरीब शिकार कल भी था,आज भी है,
अकीदों की दुआऑं में अब असर कहाँ,
वही मज़ार कल भी था,आज भी है,
इश्क़ बूढा सही,मगर ज़िन्दा है अभी,
वो निसार कल भी था, आज भी है...
-ऋतेश त्रिपाठी
22.03.2008
पारसा पे तोहमत बेईमानी की....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:04 PM
पारसा पे तोहमत बेईमानी की,
इंतहा खूब हुई कहानी की,
बरहमन कोई प्यासा मरा है,
ज़ात दूसरी थी वहाँ पानी की,
आपने मेरा गला नहीं काटा,
आपने बहुत मेहरबानी की,
सूली पे चढो और उफ़्! न करो,
यही कीमत है तेरी बेज़ुबानी की,
फ़िक़्र-ए-दिल और ख्याल पेट का,
मुश्किलें कम नहीं हैं जवानी की...
-ऋतेश त्रिपाठी
09.04.2008
मेरा फ़ैसला जिसके बयान पे है...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी at 2:00 PM
मेरा फ़ैसला जिसके बयान पे है,
एक लकवा सा उसी ज़ुबान पे है,
ये पता नहीं किधर रुख करेगी हवा,
खुश है तिनका कि अब उडान पे है,
ख़ुदा बोले भी तो अब कौन सुनेगा,
ज़ोर अक़ीदों का फ़क़त अजान पे है,
हैरत कि इस बन्दूकों के दौर में भी,
तुम्हें भरोसा तीर-ओ-क़मान पे है,
गिनाती है रोज़ मुझे सिमटने के फ़ायदे,
उस हवेली की नज़र मेरे मकान पे है,
तेरी ख्वाहिश और टूटते तारे की उम्मीद,
ये नज़र फिर देर से आसमान पे है....
-ऋतेश त्रिपाठी
15.06.2008