हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में...

ज़मीर कहता है गुरबों के तरफ़दार बनो,
तजुर्बा कहता है छोड़ो भी समझदार बनो,

चलो ये माना कि धरती यहाँ की बंजर है,
तुम्हें ये किसने कहा था कि जमींदार बनो,

हरेक घर की दीवारें यहाँ पे सेंध लगीं,
ज़रा सा सोच-समझ लो तो पहरेदार बनो,

हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में,
हवा की बात करो और गुनहगार बनो,

किसीको ये भी पता है कि मुल्क गिरवी है,
उन्होंने सबसे कहा है कि शहरयार बनो,

हरेक रिश्ता यहाँ ख़ून-ए-जिगर माँगे है,
अगर ये रिश्ते निभाने हैं अदाकार बनो,

वो नासमझ है अभी उसका दिल भी टूटेगा,
यही मुफ़ीद है तुम उसके गमगुसार बनो...

-ऋतेश त्रिपाठी
24.12.2008 

हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है...

हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है,
ये जो रक़ीब है हर बार बच निकलता है,

मैं उस के हाथ का मारा हुआ सवेरा हूँ,
कि जिसकी ओट से सूरज यहाँ निकलता है,

किसीको शक़ न हुआ बागबाँ की नीयत पर,
गुलों की आड़ में पेड़ों का जिस्म नुचता है,

हज़ार बार कहा रेत के ये घर न बना,
अभी जो देखे हैं बादल क्यूँ हाथ मलता है?

मेरे रक़ीब तेरा इक फ़रेब क्या मैं गिनूँ,
मेरा हबीब है जो मुझको रोज़ छलता है,

तुम्हारे तौर तरीकों से कुछ गिला ना मुझे,
तुम्हारी बात का लहजा ज़रूर खलता है...

-ऋतेश त्रिपाठी
२१.१२.२००८