हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है...

हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है,
ये जो रक़ीब है हर बार बच निकलता है,

मैं उस के हाथ का मारा हुआ सवेरा हूँ,
कि जिसकी ओट से सूरज यहाँ निकलता है,

किसीको शक़ न हुआ बागबाँ की नीयत पर,
गुलों की आड़ में पेड़ों का जिस्म नुचता है,

हज़ार बार कहा रेत के ये घर न बना,
अभी जो देखे हैं बादल क्यूँ हाथ मलता है?

मेरे रक़ीब तेरा इक फ़रेब क्या मैं गिनूँ,
मेरा हबीब है जो मुझको रोज़ छलता है,

तुम्हारे तौर तरीकों से कुछ गिला ना मुझे,
तुम्हारी बात का लहजा ज़रूर खलता है...

-ऋतेश त्रिपाठी
२१.१२.२००८

2 comments:

  Vinay

December 22, 2008 at 5:34 PM

बहुत ही बढ़िया

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http://prajapativinay.blogspot.com/

  "अर्श"

December 23, 2008 at 5:24 PM

मेरे रक़ीब तेरा इक फ़रेब क्या मैं गिनूँ,
मेरा हबीब है जो मुझको रोज़ छलता है,

देर आए दुरुस्त आए ऋतेश भाई बहोत दिनों से आपका इंतजार था .. ये शेर खासा मुझे पसंद है तीसरे शेर का रिदफ़ ठीक करना पड़ेगा मेरे हिसाब से ...
बेहतरीन ग़ज़ल लिखा है आपने ... ढेरो बधाई आपको.