हुई जो मात तो फिर चाल नई चलता है,
ये जो रक़ीब है हर बार बच निकलता है,
मैं उस के हाथ का मारा हुआ सवेरा हूँ,
कि जिसकी ओट से सूरज यहाँ निकलता है,
किसीको शक़ न हुआ बागबाँ की नीयत पर,
गुलों की आड़ में पेड़ों का जिस्म नुचता है,
हज़ार बार कहा रेत के ये घर न बना,
अभी जो देखे हैं बादल क्यूँ हाथ मलता है?
मेरे रक़ीब तेरा इक फ़रेब क्या मैं गिनूँ,
मेरा हबीब है जो मुझको रोज़ छलता है,
तुम्हारे तौर तरीकों से कुछ गिला ना मुझे,
तुम्हारी बात का लहजा ज़रूर खलता है...
-ऋतेश त्रिपाठी
२१.१२.२००८
कम्युनिटी हेल्थ में एक अद्भुत नाम डॉक्टर सुभाष
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* किंग* जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ से 1969 में MBBS करने के बाद डॉक्टर नरेश
त्रेहन अमरीका चले गए और उनके साथ पढ़े डॉक्टर सुभाष चन्द्र दुबे गुरुसहायगंज।
गुरसह...
8 years ago
2 comments:
December 22, 2008 at 5:34 PM
बहुत ही बढ़िया
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http://prajapativinay.blogspot.com/
December 23, 2008 at 5:24 PM
मेरे रक़ीब तेरा इक फ़रेब क्या मैं गिनूँ,
मेरा हबीब है जो मुझको रोज़ छलता है,
देर आए दुरुस्त आए ऋतेश भाई बहोत दिनों से आपका इंतजार था .. ये शेर खासा मुझे पसंद है तीसरे शेर का रिदफ़ ठीक करना पड़ेगा मेरे हिसाब से ...
बेहतरीन ग़ज़ल लिखा है आपने ... ढेरो बधाई आपको.
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