हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में...

ज़मीर कहता है गुरबों के तरफ़दार बनो,
तजुर्बा कहता है छोड़ो भी समझदार बनो,

चलो ये माना कि धरती यहाँ की बंजर है,
तुम्हें ये किसने कहा था कि जमींदार बनो,

हरेक घर की दीवारें यहाँ पे सेंध लगीं,
ज़रा सा सोच-समझ लो तो पहरेदार बनो,

हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में,
हवा की बात करो और गुनहगार बनो,

किसीको ये भी पता है कि मुल्क गिरवी है,
उन्होंने सबसे कहा है कि शहरयार बनो,

हरेक रिश्ता यहाँ ख़ून-ए-जिगर माँगे है,
अगर ये रिश्ते निभाने हैं अदाकार बनो,

वो नासमझ है अभी उसका दिल भी टूटेगा,
यही मुफ़ीद है तुम उसके गमगुसार बनो...

-ऋतेश त्रिपाठी
24.12.2008 

1 comments:

  "अर्श"

December 25, 2008 at 11:42 AM

किसीको ये भी पता है कि मुल्क गिरवी है,
उन्होंने सबसे कहा है कि शहरयार बनो,

हरेक रिश्ता यहाँ ख़ून-ए-जिगर माँगे है,
अगर ये रिश्ते निभाने हैं अदाकार बनो,

भाई साहब इसे लिखोगे तो कहर है हंगामा खड़ा हो जाएगा .. ये दोनों शेर खासा मुझे पसंद आए बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई ..