उनके सामने ही क़तरे हलाल होते हैं...


देश में हो रहे बम धमाकों पर हमारे पूँजीवादी दिमाग में उठने वाली क्षणिक उत्तेजना और लगभग नपुंसकता की हद पर पहुँच चुकी हमारी हूक़ूमत के नाम-


उनके सामने ही क़तरे हलाल होते हैं,
चुप रहते हैं समंदर , कमाल होते हैं,

मंज़िल पे पहुँचने की है आरज़ू उन्हें,
दो क़दम पे जो हौंसले निढाल होते हैं,

गज़ब है गुत्थी कि  सुलझती ही नहीं,
इक जवाब आए तो सौ सवाल होते हैं,

बेज़ुबाँ सदियाँ जेहन से उतर जाती हैं,
पलट के बोलें वो लम्हे मिसाल होते हैं,

कौन से जंगल में महफ़ूज़ हैं गज़ाले,
हर जंगल में शिकारी के जाल होते हैं...

-ऋतेश त्रिपाठी

27.09.08

2 comments:

  दीपक कुमार भानरे

September 29, 2008 at 1:25 PM

मंज़िल पे पहुँचने की है आरज़ू उन्हें,
दो क़दम पे जो हौंसले निढाल होते हैं.
बहुत अच्छी अभिव्यक्ति .

  "अर्श"

September 29, 2008 at 8:38 PM

bahot hi sundar likha hai aapne aajkal ke timing ko lekar ....bahot hi umdda...
बेज़ुबाँ सदियाँ जेहन से उतर जाती हैं,
पलट के बोलें वो लम्हे मिसाल होते हैं,

ghazab ki bat kahi hai ....

regards