अब
जब कि
नपुंसकता राष्ट्रीय बीमारी घोषित कि जा चुकी है
और हिजड़ों को आपका आँफ़िशियल प्रतिनिधि बना दिया गया है
आप स्तब्ध हैं।
आपको याद होगा
आप भी तो उस घोषणा समारोह में गये थे
और एक संदेह लेकर लौटे थे
वो एक टूटे हुए दिन की
थकी हुइ शाम थी
और उसके ठीक बाद
आप असफल होना शुरु हुए थे।
आप कहते हैं
आपने पाँच साल में
तीन बेटे और दो बेटियाँ पैदा कीं
तो क्या?
बच्चे नपुंसकता की जेल से छूटने के लिये
ज़मानती वारंट हैं?
आप दलील देते हैं
आपने कालेज के दिनों में
उस नीली आँखों वाली के लिये
कई लोगों से झगड़ा मोल लिया था
दो-तीन को चित भी किया था
तो क्या?
आपकी बाँहों की मछलियाँ
नामर्दगी के जाल से बच गईं?
आप फ़िर कहते हैं
आपने रोटी कमाई है
मुक़दमे लड़े हैं
अपनी परेशानियों से भिड़े हैं
और ये भी कि
औसत से कम भरे हुए पेट के बावज़ूद
आपकी जाँघों का पड़ोसी पुष्ट है
और आप अपनी उपलब्धियों सॆ
लगभग सन्तुष्ट हैं
तो क्या?
ये उपलब्धियाँ आपकी कब्र के पत्थर पर खुदवा दूँ
और जब तक आप ज़िन्दा हैं
आपके दरवाज़े परनेम प्लेट के बगल में लगवा दूँ?
मंज़ूर है?
नहीं?
फ़िर?
आप चुप हैं
बहुत देर से
रहेंगे भी।
सुनिये,एक नुस्खा बताता हूँ
अब जब वो आपको अपने संघर्षों का हवाला दें
और ये बताएँ कि आपकी सुविधा के लिये
वो कितनी मर्दानगी के साथ लड़े
आप आकलन करें
कि उनके संघर्ष में कितनी सुविधा थी
और आपकी सुविधा में कितना संघर्ष था (है)
आप पाएँगे
तनाव आ रहा है
सारे जिस्म में
जबड़े इतना खिचेंगे
ज़बान सवाल करना सीखेगी
जवाब भी मिलेंगे
यही तनाव
उन जवाबों को खारिज करने की क्षमता भी देगा
और अगर इलाज़ कुछ दिन चल गया
तो आप पाएँगे
कि आप
घोषणा सुनने के लिये नहीं
घोषणा करने के लिये खड़े हैं।
-ऋतेश त्रिपाठी
२५.०७.२००८
औसत सॆ कम भरा हुआ पॆट
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Saturday, July 26, 2008 at 12:09 PM
कार्ल मार्क्स का घोड़ा :
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Friday, July 25, 2008 at 1:24 PM
ये रचना उदयपुर की एक औरत को समर्पित, जो हिन्दी कविता को कुछ लफ़्फाजों की शोशेबाज़ी से ही जानती है-
कार्ल मार्क्स का घोड़ा :
पूँजीवाद के कोठे की वेश्या ने
जो साड़ी उतारकर फेंकी थी
विकासशील देश उससे शेरवानी बनवा रहे हैं
वेश्या बूढ़ी होने के बावजूद
अब भी जब ज़रा सा पेटीकोट उठाती है
हर तरफ़ से-
और और की आवाज आती है।
गदहों का व्यापार करने वालों ने
अस्तबल खोल लिये हैं
जहाँ कार्ल मार्क्स का घोड़ा
अपने पुन्सत्व को धिक्कारता बँधा है
सभी मज़दूर अब साईस हैं।
अफ़्रीका के जंगलों में
हव्वा के निकटतम पर्याय से
अमानवीय बलात्कार से उपजी संतान
अपनी माँ को गरियाती है
बाप की संवेदना के गीत गाती है
वर्णसंकर हो चुके जनतंत्र में
आजकल ये अवस्था
कविता कहाती है।
-ऋतेश त्रिपाठी
२४.०७.२००८
तुझे गिला है कि दुआ में असर नहीं होता...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Thursday, July 24, 2008 at 2:15 PM
तुझे गिला है कि दुआ में असर नहीं होता,
मैं समझता हूँ कि ज़ुबाँ से सफ़र नहीं होता,
गरज़ बेखौफ़ थी कि गली बदनाम हो गई,
वर्ना सोच वही काम किसके घर नहीं होता,
नामर्द क़ौमों को हुकूमत से हो क्या हासिल,
नामर्द की बीवी को शौहर का डर नहीं होता,
हमारी गिड़गिड़ाने की बीमारी इतनी पुरानी है,
किसी हक़ीम का नुस्खा कारगर नहीं होता,
आदमी बेबाक हो तो मुसलसल चोट खाता है,
जिसे गर्दन नहीं होती उसे कोई डर नहीं होता,
बेहतर हो किसी साकी से मरासिम बढ़ाइए,
फ़क़्त मैख़ाना जाने से दामन तर नहीं होता...
ऋतेश त्रिपाठी
२३. ०७.२००८
क़तरा अगर समंदर को शर्मसार करे....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Monday, July 21, 2008 at 12:02 PM
क़तरा अगर समंदर को शर्मसार करे,
समंदर कौन सा रुख अख्तियार करे?
जब समंदर दरिया का कारोबार करे,
क़तरा क्यूँकर समंदर का ऐतबार करे?
जब समंदर दरिया से कारोबार करे,
कोई क़तरा कहाँ जा के रोज़गार करे?
हरेक लम्हा जब नासमझ हाथों में हो,
सदी देखिये कैसी शक़्ल अख्तियार करे,
जिसे जाम का इल्म हो न पीने का शऊर,
मैक़दा आजकल ऐसों का इन्तज़ार करे...
-ऋतेश त्रिपाठी
२०.०७.२००८
यूँ तो अपनी जमा-पूँजी लुटाए बैठे हैं...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Friday, July 18, 2008 at 11:32 AM
यूँ तो अपनी जमा-पूँजी लुटाए बैठे हैं,
लोग खुश हैं कि तजुर्बा कमाए बैठे हैं,
ख़बर नहीं उन्हें कि फ़सल डूब रही है,
वो लोग दरिया को मुद्दा बनाए बैठे हैं,
औलाद बेच कर खरीद लाए थे मगर,
माँ-बाप रोटियाँ सीने से लगाए बैठे हैं,
जब भी सोचता हूँ कि हक़ की बात हो,
ये देखता हूँ वो आस्तीनें चढाए बैठे हैं,
अक्सर जो मुझसे शतरंज में हारते रहे,
वो लोग आजकल चौसर जमाए बैठे हैं,
सोच कभी क्यूँ मैं उफ़्फ़ ! नहीं करता,
सौ रिश्ते मुझसे आसरा लगाए बैठे हैं,
आप को अज़ीज रोशनदानों से रोशनी,
सय्याद जंगलों में जाल बिछाए बैठे हैं...
-ऋतेश त्रिपाठी
१७.०७.२००८
क्या खूब इन उजालों ने ये साजिश की है...
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Tuesday, July 8, 2008 at 2:45 PM
क्या खूब इन उजालों ने ये साजिश की है,
हम अपना घर भी जलाएँ ये गुज़ारिश की है,
तू ग़मगीं है कि तुझे ज़रूरत से कम मिला,
वो खुशगुमान है कि उसने नवाज़िश की है,
तुमने दरिया पे ख़तरे की मनादी कर दी,
हमने अगर क़तरों की भी ख्वाहिश की है,
हश्र सोचिये कि उन मिन्नतों का क्या होगा,
लोग गूँगे हैं और बहरों से सिफ़ारिश की है,
अब जब के मैं यहाँ टूट के बिखरा पड़ा हूँ,
हर शख्स ने अपने ज़ख्म की नुमाइश की है,
लहरें मेरी कश्ती को किनारे लगने नहीं देतीं,
और हमने एक उम्र दरिया की परस्तिश की है...
-ऋतेश त्रिपाठी
०७.०७.२००८
या तुझे राह-ए-मक़्तल दिखाई नहीं देती....
Posted by ऋतेश त्रिपाठी Thursday, July 3, 2008 at 10:42 AM
या तुझे राह-ए-मक़्तल दिखाई नहीं देती,
या तेरी चीख मद्धम है सुनाई नहीं देती,
सुना है मज़ार के उर्स पर बाँटे है मिठाई,
गो बुढ़िया ख़ैरात में कभी पाई नहीं देती,
उन्हें उम्मीद कि अबके अच्छी हो फ़सल,
हमें बारिश किसी सिम्त दिखाई नहीं देती,
वही लोग बने बैठे हैं अब खबरी यहाँ पर,
घर की दहलीज़ जिनको रिहाई नहीं देती,
अब भी जलते हैं जो मैंने जलाए थे चराग़,
रोशनी है कि मेरे हक़ में गवाही नहीं देती,
एक मौत है कब मेरे नाम का फ़तवा पढ़ दे,
एक ज़िंदगी है कि ज़रा भी सफ़ाई नहीं देती,
तू मसीहा है अगर तुझको मुनासिब है सलीब,
तक़दीर यूँ ही किसी को रहनुमाई नहीं देती...
-ऋतेश त्रिपाठी
०२.०७.२००८
(दूसरे शे'र में इंगित "बुढ़िया" आजकल हमारे देश की सबसे प्रभावशाली औरत है. उम्मीद है कि बाकी बिंब साफ़ हैं)